खाद्य नहीं, प्रणाली का संकट


भूमंडलीकरण और उदारीकरण की जनविरोधी नीतियाँ संकट में हैं। अमेरिका और यूरोप से लेकर चीन और भारत समेत पूरी दुनिया में इसका असर पड़ा है। पूँजी के दिग्विजयी अभियान पर ब्रेक लगा है तो लाखों लोगों की नौकरियाँ भी गई हैं। उदारीकरण के समर्थक इसे कम करके दिखा रहे हैं और मजह वित्तीय पूँजी का संकट बता रहे हैं, जबकि यह वास्तविक अर्थव्यवस्था का संकट है और पिछले ढाई दशक से चल रही आर्थिक नीतियों का परिमाम है। इसके कई आयाम हैं और उन्हीं में से एक गंभीर आयाम है खाद्य संकट। खाद्य संटक की जड़ें कृषि संकट में भी हैं और उस आधुनिक खाद्य प्रणाली में भी जिसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मनुष्य और धरती के स्वास्थ्य की कीमत पर अपने हितों के लिए तैयार किया है। एक तरफ दुनिया के कई देशों में अनाज के लिए दंगे हो रहे हैं और दूसरी तरफ उच्च ऊर्जा के गरिष्ठ भोजन के चलते मोटापा, डायबटीज, हृदय रोग जैसी तमाम बीमारियों ने लोगों को घेर रखा है। सुख-समृद्धि देने का दावा करने वाला पूँजीवाद सामान्य आदमी का पेट काट रहा है तो अमीर आदमी के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहा है।

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