गोदान भाग 1

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होरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी देकर अपनी स्त्री धनिया से कहा — गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौटूँ। ज़रा मेरी लाठी दे दे।

धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथकर आयी थी। बोली — अरे, कुछ रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या है।

होरी ने अपने झुरिर्यों से भरे हुए माथे को सिकोड़कर कहा — तुझे रस-पानी की पड़ी है, मुझे यह चिन्ता है कि अबेर हो गयी तो मालिक से भेंट न होगी। असनान-पूजा करने लगेंगे, तो घंटों बैठे बीत जायगा।

‘इसी से तो कहती हूँ, कुछ जलपान कर लो। और आज न जाओगे तो कौन हरज़ होगा। अभी तो परसों गये थे।’

‘तू जो बात नहीं समझती, उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है। नहीं कहीं पता न लगता कि किधर गये। गाँव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदख़ली नहीं आयी, किस पर कुड़की नहीं आयी। जब दूसरे के पाँवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशल है। ‘

धनिया इतनी व्यवहार-कुशल न थी। उसका विचार था कि हमने ज़मींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी ख़ुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलायें। यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो; मगर लगान बेबाक़ होना मुश्किल है। फिर भी वह हार न मानती थी, और इस विषय पर स्त्री-पुरुष में आये दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी छः सन्तानों में अब केवल तीन ज़िन्दा हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का, और दो लड़कियाँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गये। उसका मन आज भी कहता था, अगर उनकी दवादारू होती तो वे बच जाते; पर वह एक धेले की दवा भी न मँगवा सकी थी। उसकी ही उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो था; पर सारे बाल पक गये थे, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। सारी देह ढल गयी थी, वह सुन्दर गेहुआँ रंग सँवला गया था और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिन्ता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी जीऩार्वस्था ने उसके आत्म-सम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी ख़ुशामद क्यों? इस परिस्थिति से उसका मन बराबर विद्रोह किया करता था। और दो चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्नान होता था।

उसने परास्त होकर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ लाकर सामने पटक दिये।

होरी ने उसकी ओर आँखें तरेर कर कहा — क्या ससुराल जाना है जो पाँचों पोसाक लायी है? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सलहज नहीं बैठी है, जिसे जाकर दिखाऊँ।

होरी के गहरे साँवले, पिचके हुए चेहरे पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा — ऐसे ही तो बड़े सजीले जवान हो कि साली-सलहजें तुम्हें देख कर रीझ जायँगी!

होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा — तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया? अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।

‘जाकर सीसे में मुँह देखो। तुम-जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे! तुम्हारी दशा देख-देखकर तो मैं और भी सूखी जाती हूँ कि भगवान् यह बुढ़ापा कैसे कटेगा? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे?’

होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में जैसे झुलस गयी। लकड़ी सँभालता हुआ बोला — साठे तक पहुँचने की नौबत न आने पायेगी धनिया! इसके पहले ही चल देंगे।

धनिया ने तिरस्कार किया — अच्छा रहने दो, मत असुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने।

होरी लाठी कन्धे पर रखकर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने धनिया के चोट खाये हुए हृदय में आतंकमय कम्पन-सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नारीत्व के सम्पूऩर् तप और व्रत से अपने पति को अभय-दान दे रही थी। उसके अन्तःकरण से जैसे आशीर्वादों का व्यूह-सा निकल कर होरी को अपने अन्दर छिपाये लेता था। विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी मानो झटका देकर उसके हाथ से वह तिनके का सहारा छीन लेना चाहा बिल्क यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना-शक्ति आ गयी थी। काना कहने से काने को जो दुःख होता है, वह क्या दो आँखोंवाले आदमी को हो सकता है?

होरी क़दम बढ़ाये चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देख कर उसने मन में कहा — भगवान् कहीं गौं से बरखा कर दें और डाँड़ी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय ज़रूर लेगा। देशी गायें तो न दूध दें न उनके बछवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं, वह पछाईं गाय लेगा। उसकी ख़ूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पाँच सेर दूध होगा। गोबर दूध के लिए तरस-तरस कर रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खायेगा। साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक़ हो जाय। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। फिर, गऊ से ही तो द्वार की सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जायँ तो क्या कहना। न जाने कब यह साध पूरी होगी, कब वह शुभ दिन आयेगा!

हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी। बैंक सूद से चैन करने या ज़मीन ख़रीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हें-से हृदय में कैसे समातीं।

जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट में से निकलकर आकाश पर छायी हुई लालिमा को अपने रजत-प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था और हवा में गमीर् आने लगी थी। दोनों ओर खेतों में काम करनेवाले किसान उसे देखकर राम-राम करते और सम्मान-भाव से चिलम पीने का निमन्त्रण देते थे; पर होरी को इतना अवकाश कहाँ था। उसके अन्दर बैठी हुई सम्मान-लालसा ऐसा आदर पाकर उसके सूखे मुख पर गर्व की झलक पैदा कर रही थी। मालिकों से मिलते-जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कि सब उसका आदर करते हैं। नहीं उसे कौन पूछता? पाँच बीघे के किसान की बिसात ही क्या? यह कम आदर नहीं है कि तीन-तीन, चार-चार हलवाले महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं।

अब वह खेतों के बीच की पगडंडी छोड़कर एक खलेटी में आ गया था, जहाँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हरियाली नज़र आती थी। आस-पास के गाँवों की गउएँ यहाँ चरने आया करती थीं। उस समय में भी यहाँ की हवा में कुछ ताज़गी और ठंडक थी। होरी ने दो-तीन साँसें ज़ोर से लीं। उसके जी में आया, कुछ देर यहीं बैठ जाय। दिन-भर तो लू-लपट में मरना है ही। कई किसान इस गड्ढे का पट्टा लिखाने को तैयार थे। अच्छी रक़म देते थे; पर ईश्वर भला करे राय साहब का कि उन्होंने साफ़ कह दिया, यह ज़मीन जानवरों की चराई के लिए छोड़ दी गयी है और किसी दाम पर भी न उठायी जायगी। कोई स्वार्थी ज़मींदार होता, तो कहता, गायें जायँ भाड़ में, हमें रुपए मिलते हैं, क्यों छोड़ें। पर राय साहब अभी तक पुरानी मर्यादा निभाते आते हैं। जो मालिक प्रजा को न पाले, वह भी कोई आदमी है?

सहसा उसने देखा, भोला अपनी गायें लिये इसी तरफ़ चला आ रहा है। भोला इसी गाँव से मिले हुए पुरवे का ग्वाला था और दूध-मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम मिल जाने पर कभी-कभी किसानों के हाथ गायें बेच भी देता था। होरी का मन उन गायों को देख कर ललचा गया। अगर भोला वह आगेवाली गाय उसे दे तो क्या कहना! रुपए आगे पीछे देता रहेगा। वह जानता था घर में रुपए नहीं हैं, अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सका, बिसेसर साह का देना भी बाक़ी है, जिस पर आने रुपए का सूद चढ़ रहा है; लेकिन दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती है, वह निर्लज्जता जो तक़ाज़े, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होती, उसने उसे प्रोत्साहित किया। बरसों से जो साध मन को आन्दोलित कर रही थी, उसने उसे विचलित कर दिया। भोला के समीप जाकर बोला — राम-राम भोला भाई, कहो क्या रंग-ढंग है। सुना अबकी मेले से नयी गायें लाये हो।

भोला ने रूखाई से जवाब दिया। होरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी — हाँ, दो बछियें और दो गायें लाया। पहलेवाली गायें सब सूख गयी थीं। बँधी पर दूध न पहुँचे तो गुज़र कैसे हो। होरी ने आनेवाली गाय के पुट्ठे पर हाथ रखकर कहा — दुधार तो मालूम होती है। कितने में ली ?

भोला ने शान जमायी — अबकी बाज़ार बड़ा तेज़ रहा महतो, इसके अस्सी रुपए देने पड़े। आँखें निकल गयीं। तीस-तीस रुपए तो दोनों कलोरों के दिये। तिस पर गाहक रुपए का आठ सेर दूध माँगता है।

‘बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों का भाई, लेकिन फिर लाये भी तो वह माल कि यहाँ दस-पाँच गाँवों में तो किसी के पास निकलेगी नहीं। ‘

भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला — राय साहब इसके सौ रुपए देते थे। दोनों कलोरों के पचास-पचास रुपए, लेकिन हमने न दिये। भगवान् ने चाहा, तो सौ रुपए इसी ब्यान में पीट लूँगा।

‘ इसमें क्या सन्देह है भाई ! मालिक क्या खाके लेंगे। नज़राने में मिल जाय, तो भले ले लें। यह तुम्हीं लोगों का गुदार् है कि अँजुली-भर रुपए तक़दीर के भरोसे गिन देते हो। यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूँ। धन्य है तुम्हारा जीवन कि गउओं की इतनी सेवा करते हो। हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो, तो कितनी लज्जा की बात है। साल-के-साल बीत जाते हैं, गोरस के दरसन नहीं होते। घरवाली बार-बार कहती है, भोला भैया से क्यों नहीं कहते। मैं कह देता हूँ, कभी मिलेंगे तो कहूँगा। तुम्हारे सुभाव से बड़ी परसन रहती है। कहती है, ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगे, नीची आँखें करके, कभी सिर नहीं उठाते। ‘

भोला पर जो नशा चढ़ रहा था, उसे इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया। बोला — भला आदमी वही है, जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताके, उसे गोली मार देना चाहिए।

‘यह तुमने लाख रुपये की बात कह दी भाई। बस सज्जन वही, जो दूसरों की आबरू को अपनी आबरू समझे। ‘

‘जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती है, उसी तरह औरत के मर जाने से मर्द के हाथ-पाँव टूट जाते हैं। मेरा तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी देनेवाला भी नहीं। ‘

गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गयी थी। यह होरी जानता था, लेकिन पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना स्निग्ध है, वह न जानता था। स्त्री की लालसा उसकी आँखों में सजल हो गयी थी। होरी को आसन मिल गया। उसकी व्यावहारिक कृषक-बुद्धि सजग हो गयी।

‘पुरानी मसल झूठी थोड़ी है — बिन घरनी घर भूत का डेरा। कहीं सगाई नहीं ठीक कर लेते? ‘

‘ताक में हूँ महतो, पर कोई जल्दी फँसता नहीं। सौ-पचास ख़रच करने को भी तैयार हूँ। जैसी भगवान् की इच्छा। ‘

‘अब मैं भी फ़िर्क में रहूँगा। भगवान् चाहेंगे, तो जल्दी घर बस जायगा। ‘

‘बस यही समझ लो कि उबर जाऊँगा भैया! घर में खाने को भगवान् का दिया बहुत है। चार पसेरी रोज़ दूध हो जाता है, लेकिन किस काम का। ‘

‘मेरे ससुराल में एक मेहरिया है। तीन-चार साल हुए, उसका आदमी उसे छोड़-कर कलकत्ते चला गया। बेचारी पिसाई करके गुज़र कर रही है। बाल-बच्चा भी कोई नहीं। देखने-सुनने में अच्छी है। बस, लच्छमी समझ लो। ‘

भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा जैसे चिकना गया। आशा में कितनी सुधा है। बोला — अब तो तुम्हारा ही आसरा है महतो! छुट्टी हो, तो चलो एक दिन देख आयें।

‘मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे कहूँगा। बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़ जाता है। ‘

‘जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो। उतावली काहे की। इस कबरी पर मन ललचाया हो, तो ले लो। ‘

‘यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा। मैं तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहता। अपना धरम यह नहीं है कि मित्रों का गला दबायें। जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जायेंगे। ‘

‘तुम तो ऐसी बातें करते हो होरी, जैसे हम-तुम दो हैं। तुम गाय ले जाओ, दाम जो चाहे देना। जैसे मेरे घर रही, वैसे तुम्हारे घर रही। अस्सी रुपए में ली थी, तुम अस्सी रुपये ही दे देना। जाओ। ‘

‘लेकिन मेरे पास नगद नहीं है दादा, समझ लो। ‘

‘तो तुमसे नगद माँगता कौन है भाई!’

होरी की छाती गज़-भर की हो गयी। अस्सी रुपए में गाय मँहगी न थी। ऐसा अच्छा डील-डौल, दोनों जून में छः-सात सेर दूध, सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले। इसका तो एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा। द्वार पर बँधेगी तो द्वार की शोभा बढ़ जायगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपए देने थे; लेकिन उधार को वह एक तरह से मुफ़्त समझता था। कहीं भोला की सगाई ठीक हो गयी तो साल दो साल तो वह बोलेगा भी नहीं। सगाई न भी हुई, तो होरी का क्या बिगड़ता है। यही तो होगा, भोला बार-बार तगादा करने आयेगा, बिगड़ेगा, गालियाँ देगा। लेकिन होरी को इसकी ज़्यादा शर्म न थी। इस व्यवहार का वह आदी था। कृषक के जीवन का तो यह प्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मयार्दा के अनुकूल था। अब भी लेन-देन में उसके लिए लिखा-पढ़ी होने और न होने में कोई अन्तर न था। सूखे-बूड़े की विपदाएँ उसके मन को भी, बनाये रहती थीं। ईश्वर का रौद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था। पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी। इस तरह का छल तो वह दिन-रात करता रहता था। घर में दो-चार रुपये पड़े रहने पर भी महाजन के सामने क़स्में खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और रुई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था। और यहाँ तो केवल स्वार्थ न था, थोड़ा-सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जाय, तो कोई दोष-पाप नहीं।

भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा — ले जाओ महतो, तुम भी याद करोगे। ब्याते ही छः सेर दूध ले लेना। चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूँ। साइत तुम्हें अनजान समझकर रास्तों में कुछ दिक करे। अब तुमसे सच कहता हूँ, मालिक नब्बे रुपए देते थे, पर उनके यहाँ गउओं की क्या क़दर। मुझसे लेकर किसी हाकिम-हुक्काम को दे देते। हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलब। वह तो ख़ून चूसना-भर जानते हैं। जब तक दूध देती, रखते, फिर किसी के हाथ बेच देते। किसके पल्ले पड़ती कौन जाने। रुपया ही सब कुछ नहीं है भैया, कुछ अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप खाकर सो रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी सेवा करोगे, चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद देगी। तुमसे क्या कहूँ भैया, घर में चंगुल भर भी भूसा नहीं रहा। रुपए सब बाज़ार में निकल गये। सोचा था महाजन से कुछ लेकर भूसा ले लेंगे; लेकिन महाजन का पहला ही नहीं चुका। उसने इनकार कर दिया। इतने जानवरों को क्या खिलावें, यही चिन्ता मारे डालती है। चुटकी-चुटकी भर खिलाऊँ, तो मन-भर रोज़ का ख़रच है। भगवान् ही पार लगायें तो लगे।

होरी ने सहानुभूति के स्वर में कहा — तुमने हमसे पहले क्यों नहीं कहा? हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया।

भोला ने माथा ठोककर कहा — इसीलिए नहीं कहा भैया कि सबसे अपना दुःख क्यों रोऊँ। बाँटता कोई नहीं, हँसते सब हैं। जो गायें सूख गयी हैं उनका ग़म नहीं, पत्ती-सत्ती खिलाकर जिला लूँगा; लेकिन अब यह तो रातिब बिना नहीं रह सकती। हो सके, तो दस-बीस रुपये भूसे के लिए दे दो।

किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें सन्देह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है; खेती में अनाज होता है, वह संसार के काम आता है; गाय के थन में दूध होता है, वह ख़ुद पीने नहीं जाती दूसरे ही पीते हैं; मेघों से वर्षा होती है, उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान। होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था।

भोला की संकट-कथा सुनते ही उसकी मनोवृत्ति बदल गयी। पगहिया को भोला के हाथ में लौटाता हुआ बोला — रुपए तो दादा मेरे पास नहीं हैं, हाँ थोड़ा-सा भूसा बचा है, वह तुम्हें दूँगा। चलकर उठवा लो। भूसे के लिए तुम गाय बेचोगे, और मैं लूँगा। मेरे हाथ न कट जायेंगे?

भोला ने आर्द्र कंठ से कहा — तुम्हारे बैल भूखों न मरेंगे! तुम्हारे पास भी ऐसा कौन-सा बहुत-सा भूसा रखा है।

‘नहीं दादा, अबकी भूसा अच्छा हो गया था।’

‘मैंने तुमसे नाहक़ भूसे की चर्चा की। ‘

‘तुम न कहते और पीछे से मुझे मालूम होता, तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने मुझे इतना ग़ैर समझ लिया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई भी न करे, तो काम कैसे चले।’

‘मुदा यह गाय तो लेते जाओ। ‘

‘अभी नहीं दादा, फिर ले लूंगा। ‘

‘तो भूसे के दाम दूध में कटवा लेना। ‘

होरी ने दुःखित स्वर में कहा — दाम-कौड़ी की इसमें कौन बात है दादा, मैं एक-दो जून तुम्हारे घर खा लूँ, तो तुम मुझसे दाम मांगोगे?

‘ लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे कि नहीं? ‘

‘ भगवान् कोई-न-कोई सबील निकालेंगे ही। असाढ़ सिर पर है। कड़बी बो लूंगा। ‘

‘ मगर यह गाय तुम्हारी हो गई। जिस दिन इच्छा हो आकर ले जाना। ‘

‘ किसी भाई का नीलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है, वह इस समय तुम्हारी गाय लेने में है। ‘

होरी में बाल की खाल निकालने की शक्ति होती, तो वह ख़ुशी से गाय लेकर घर की राह लेता। भोला जब नक़द रुपए नहीं माँगता तो स्पष्ट था कि वह भूसे के लिए गाय नहीं बेच रहा है, बल्कि इसका कुछ और आशय है; लेकिन जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक जाता है और मारने पर भी आगे क़दम नहीं उठाता वही दसा होरी की थी। संकट की चीज़ लेना पाप है, यह बात जन्म-जन्मान्तरों से उसकी आत्मा का अंश बन गयी थी।

भोला ने गद् गद कंठ से कहा — तो किसी को भेज दूँ भूसे के लिए?

होरी ने जवाब दिया– अभी मैं राय साहब की डयोढ़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी-भर में लौटूंगा, तभी किसी को भेजना।

भोला की आँखों में आँसू भर आये। बोला — तुमने आज मुझे उबार लिया होरी भाई! मुझे अब मालूम हुआ कि मैं संसार में अकेला नहीं हूँ। मेरा भी कोई हितू है। एक क्षण के बाद उसने फिर कहा — उस बात को भूल न जाना।

होरी आगे बढ़ा, तो उसका चित्त प्रसन्न था। मन में एक विचित्र स्फूर्ति हो रही थी। क्या हुआ, दस-पाँच मन भूसा चला जायगा, बेचारे को संकट में पड़ कर अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी। जब मेरे पास चारा हो जायगा, तब गाय खोल लाऊँगा। भगवान् करें, मुझे कोई मेहरिया मिल जाय। फिर तो कोई बात ही नहीं।

उसने पीछे फिर कर देखा। कबरी गाय पूँछ से मक्खियाँ उड़ाती, सिर हिलाती, मस्तानी, मन्द-गति से झूमती चली जाती थी, जैसे बाँदियों के बीच में कोई रानी हो। कैसा शुभ होगा वह दिन, जब यह कामधेनु उसके द्वार पर बंधेगी!

सेमरी और बेलारी दोनों अवध-प्रान्त के गाँव हैं। ज़िले का नाम बताने की कोई ज़रूरत नहीं। होरी बेलारी में रहता है, राय साहब अमरपाल सिंह सेमरी में। दोनों गाँवों में केवल पाँच मील का अन्तर है। पिछले सत्याग्रह-संग्राम में राय साहब ने बड़ा यश कमाया था। कौंसिल की मेम्बरी छोड़कर जेल चले गये थे। तब से उनके इलाक़े के असामियों को उनसे बड़ी श्रद्धा हो गयी थी। यह नहीं कि उनके इलाक़े में असामियों के साथ कोई ख़ास रियायत की जाती हो, या डाँड़ और बेगार की कड़ाई कुछ कम हो; मगर यह सारी बदनामी मुख़्तारों के सिर जाती थी। राय साहब की कीर्ति पर कोई कलंक न लग सकता था। वह बेचारे भी तो उसी व्यवस्था के ग़ुलाम थे। ज़ाब्ते का काम तो जैसे होता चला आया है, वैसा ही होगा। राय साहब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थी; इसलिए आमदनी और अधिकार में जौ-भर की भी कमी न होने पर भी उनका यश मानो बढ़ गया था। असामियों से वह हँस कर बोल लेते थे। यही क्या कम है ? सिंह का काम तो शिकार करना है; अगर वह गरजने और गुरार्ने के बदले मीठी बोली बोल सकता, तो उसे घर बैठे मनमाना शिकार मिल जाता। शिकार की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता।

राय साहब राष्ट्रवादी होने पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाये रखते थे। उनकी नज़रें और डालियाँ और कर्मचारियों की दस्तूरियाँ जैसी की तैसी चली आती थीं। साहित्य और संगीत के प्रेमी थे, ड्रामा के शौक़ीन, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक, अच्छे निशाने-बाज़। उनकी पत्नी को मरे आज दस साल हो चुके थे; मगर दूसरी शादी न की थी। हँस-बोलकर अपने विधुर जीवन को बहलाते रहते थे।

होरी ड्योढ़ी पर पहुँचा तो देखा जेठ के दशहरे के अवसर पर होनेवाले धनुष-यज्ञ की बड़ी ज़ोरों से तैयारियाँ हो रही हैं। कहीं रंग-मंच बन रहा था, कहीं मंडप, कहीं मेहमानों का आतिथ्य-गृह, कहीं दूकानदारों के लिए दूकानें। धूप तेज़ हो गयी थी; पर राय साहब ख़ुद काम में लगे हुए थे। अपने पिता से सम्पत्ति के साथ-साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पायी थी और धनुष-यज्ञ को नाटक का रूप देकर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था। इस अवसर पर उनके यार-दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमंत्रित होते थे। और दो-तीन दिन इलाक़े में बड़ी चहल-पहल रहती थी। राय साहब का परिवार बहुत विशाल था। कोई डेढ़ सौ सरदार एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे, दरजनों चचेरे भाई, कई सगे भाई, बीसियों नाते के भाई। एक चचा साहब राधा के अनन्य उपासक थे और बराबर वृन्दाबन में रहते थे। भक्ति-रस के कितने ही कविता रच डाले थे और समय-समय पर उन्हें छपवाकर दोस्तों की भेंट कर देते थे। एक दूसरे चचा थे, जो राम के परमभक्त थे और फ़ारसी-भाषा में रामायण का अनुवाद कर रहे थे। रियासत से सबके वसीके बँधे हुए थे। किसी को कोई काम करने की ज़रूरत न थी।

होरी मंडप में खड़ा सोच रहा था कि अपने आने की सूचना कैसे दे कि सहसा राय साहब उधर ही आ निकले और उसे देखते ही बोले –अरे ! तू आ गया होरी, मैं तो तुझे बुलवानेवाला था। देख, अबकी तुझे राजा जनक का माली बनना पड़ेगा। समझ गया न, जिस वक़्त जानकी जी मन्दिर में पूजा करने जाती हैं, उसी वक़्त तू एक गुलदस्ता लिये खड़ा रहेगा और जानकी जी की भेंट करेगा। ग़लती न करना और देख, असामियों से ताकीद करके कह देना कि सब-के-सब शगुन करने आयें। मेरे साथ कोठी में आ, तुझसे कुछ बातें करनी हैं। वह आगे-आगे कोठी की ओर चले, होरी पीछे-पीछे चला। वहीं एक घने वृक्ष की छाया में एक कुरसी पर बैठ गये और होरी को ज़मीन पर बैठने का इशारा करके बोले — समझ गया, मैंने क्या कहा। कारकुन को तो जो कुछ करना है, वह करेगा ही, लेकिन असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन की नहीं सुनता। हमें इन्हीं पाँच-सात दिनों में बीस हज़ार का प्रबन्ध करना है। कैसे होगा, समझ में नहीं आता। तुम सोचते होगे, मुझ टके के आदमी से मालिक क्यों अपना दुखड़ा ले बैठे। किससे अपने मन की कहूँ ? न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास होता है। इतना जानता हूँ कि तुम मन में मुझ पर हँसोगे नहीं। और हँसो भी, तो तुम्हारी हँसी मैं वरदाश्त कर सकूँगा। नहीं सह सकता उनकी हँसी, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी हँसी में ईर्ष्या, व्यंग और जलन है। और वे क्यों न हँसेंगे। मैं भी तो उनकी दुर्दशा और विपत्ति और पतन पर हँसता हूँ, दिल खोलकर, तालियाँ बजाकर। सम्पत्ति और सहृदयता में वैर है। हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं। लेकिन जानते हो, क्यों ? केवल अपने बराबरवालों को नीचा दिखाने के लिए। हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार है, विशुद्ध अहंकार। हम में से किसी पर डिग्री हो जाय, क़ुर्क़ी आ जाय, बक़ाया मालगुज़ारी की इल्लत में हवालात हो जाय, किसी का जवान बेटा मर जाय, किसी की विधवा बहू निकल जाय, किसी के घर में आग लग जाय, कोई किसी वेश्या के हाथों उल्लू बन जाय, या अपने असामियों के हाथों पिट जाय, तो उसके और सभी भाई उस पर हँसेंगे, बग़लें बजायेंगे, मानो सारे संसार की सम्पदा मिल गयी है। और मिलेंगे तो इतने प्रेम से, जैसे हमारे पसीने की जगह ख़ून बहाने को तैयार हैं। अरे, और तो और, हमारे चचेरे, फुफेरे, ममेरे, मौसेरे भाई जो इसी रियासत की बदौलत मौज उड़ा रहे हैं, कविता कर रहे हैं और जुए खेल रहे हैं, शराबें पी रहे हैं और ऐयाशी कर रहे हैं, वह भी मुझसे जलते हैं, और आज मर जाऊँ तो घी के चिराग़ जलायें। मेरे दुःख को दुःख समझनेवाला कोई नहीं। उनकी नज़रों में मुझे दुखी होने का कोई अधिकार ही नहीं है। मैं अगर रोता हूँ, तो दुःख की हँसी उड़ाता हूँ। मैं अगर बीमार होता हूँ, तो मुझे सुख होता है। मैं अगर अपना ब्याह करके घर में कलह नहीं बढ़ाता तो यह मेरी नीच स्वार्थपरता है; अगर ब्याह कर लूँ, तो वह विलासान्धता होगी। अगर शराब नहीं पीता तो मेरी कंजूसी है। शराब पीने लगूँ, तो वह प्रजा का रक्त होगा। अगर ऐयाशी नहीं करता, तो अरसिक हूँ, ऐयाशी करने लगूँ, तो फिर कहना ही क्या। इन लोगों ने मुझे भोग-विलास में फँसाने के लिए कम चालें नहीं चलीं और अब तक चलते जाते हैं। उनकी यही इच्छा है कि मैं अन्धा हो जाऊँ और ये लोग मुझे लूट लें, और मेरा धर्म यह है कि सब कुछ देखकर भी कुछ न देखूँ। सब कुछ जानकर भी गधा बना रहूँ।

राय साहब ने गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए दो बीड़े पान खाये और होरी के मुँह की ओर ताकने लगे, जैसे उसके मनोभावों को पढ़ना चाहते हों।

होरी ने साहस बटोरकर कहा — हम समझते थे कि ऐसी बातें हमीं लोगों में होती हैं, पर जान पड़ता है, बड़े आदमियों में उनकी कमी नहीं है।

राय साहब ने मुँह पान से भरकर कहा — तुम हमें बड़ा आदमी समझते हो ? हमारे नाम बड़े हैं, पर दर्शन थोड़े। ग़रीबों में अगर ईर्ष्या या वैर है तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या और वैर को मैं क्षम्य समझता हूँ। हमारे मुँह की रोटी कोई छीन ले तो उसके गले में उँगली डालकर निकालना हमारा धर्म हो जाता है। अगर हम छोड़ दें, तो देवता हैं। बड़े आदमियों की ईर्ष्या और वैर केवल आनन्द के लिए है। हम इतने बड़े आदमी हो गये हैं कि हमें नीचता और कुटिलता में ही निःस्वार्थ और परम आनन्द मिलता है। हम देवतापन के उस दर्जे पर पहुँच गये हैं जब हमें दूसरों के रोने पर हँसी आती है। इसे तुम छोटी साधना मत समझो। जब इतना बड़ा कुटुम्ब है, तो कोई-न-कोई तो हमेशा बीमार रहेगा ही। और बड़े आदमियों के रोग भी बड़े होते हैं। वह बड़ा आदमी ही क्या, जिसे कोई छोटा रोग हो। मामूली ज्वर भी आ जाय, तो हमें सरसाम की दवा दी जाती है, मामूली फुंसी भी निकल आये, तो वह ज़हरबाद बन जाती है। अब छोटे सर्जन और मझोले सर्जन और बड़े सर्जन तार से बुलाये जा रहे हैं, मसीहुलमुल्क को लाने के लिए दिल्ली आदमी भेजा जा रहा है, भिषगाचार्य को लाने के लिए कलकत्ता। उधर देवालय में दुर्गापाठ हो रहा है और ज्योतिषाचार्य कुंडली का विचार कर रहे हैं और तन्त्र के आचार्य अपने अनुष्ठान में लगे हुए हैं। राजा साहब को यमराज के मुँह से निकालने के लिए दौड़ लगी हुई है। वैद्य और डाक्टर इस ताक में रहते हैं कि कब सिर में दर्द हो और कब उनके घर में सोने की वर्षा हो। और ये रुपए तुमसे और तुम्हारे भाइयों से वसूल किये जाते हैं, भाले की नोक पर। मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि क्यों तुम्हारी आहों का दावानल हमें भस्म नहीं कर डालता; मगर नहीं, आश्चर्य करने की कोई बात नहीं। भस्म होने में तो बहुत देर नहीं लगती, वेदना भी थोड़ी ही देर की होती है। हम जौ-जौ और अंगुल-अंगुल और पोर-पोर भस्म हो रहे हैं। उस हाहाकार से बचने के लिए हम पुलिस की, हुक्काम की, अदालत की, वकीलों की शरण लेते हैं। और रूपवती स्त्री की भाँति सभी के हाथों का खिलौना बनते हैं। दुनिया समझती है, हम बड़े सुखी हैं। हमारे पास इलाक़े, महल, सवारियाँ, नौकर-चाकर, क़रज़, वेश्याएँ, क्या नहीं हैं, लेकिन जिसकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं, वह और चाहे कुछ हो, आदमी नहीं है। जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद न आती हो, जिसके दुःख पर सब हँसें और रोनेवाला कोई न हो, जिसकी चोटी दूसरों के पैरों के नीचे दबी हो, जो भोग-विलास के नशे में अपने को बिलकुल भूल गया हो, जो हुक्काम के तलवे चाटता हो और अपने अधीनों का ख़ून चूसता हो, उसे मैं सुखी नहीं कहता। वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है। साहब शिकार खेलने आयें या दौरे पर, मेरा कर्तव्य है कि उनकी दुम के पीछे लगा रहूँ। उनकी भौंहों पर शिकन पड़ी और हमारे प्राण सूखे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए हम क्या नहीं करते। मगर वह पचड़ा सुनाने लगूँ तो शायद तुम्हें विश्वास न आये। डालियों और रिश्वतों तक तो ख़ैर ग़नीमत है, हम सिजदे करने को भी तैयार रहते हैं। मुफ़्तख़ोरी ने हमें अपंग बना दिया है, हमें अपने पुरुषार्थ पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं, केवल अफ़सरों के सामने दुम हिला-हिलाकर किसी तरह उनके कृपापात्र बने रहना और उनकी सहायता से अपनी प्रजा पर आतंक ज़माना ही हमारा उद्यम है। पिछलगुओं की ख़ुशामद ने हमें इतना अभिमानी और तुनकमिज़ाज बना दिया है कि हममें शील, विनय और सेवा का लोप हो गया है। मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर सरकार हमारे इलाक़े छीनकर हमें अपनी रोज़ी के लिए मेहनत करना सिखा दे तो हमारे साथ महान उपकार करे, और यह तो निश्चय है कि अब सरकार भी हमारी रक्षा न करेगी। हमसे अब उसका कोई स्वार्थ नहीं निकलता। लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जानेवाली है। मैं उस दिन का स्वागत करने को तैयार बैठा हूँ। ईश्वर वह दिन जल्द लाये। वह हमारे उद्धार का दिन होगा। हम परिस्थतियों के शिकार बने हुए हैं। यह परिस्थिति ही हमारा सर्वनाश कर रही है और जब तक सम्पत्ति की यह बेड़ी हमारे पैरों से न निकलेगी, जब तक यह अभिशाप हमारे सिर पर मँडराता रहेगा, हम मानवता का वह पद न पा सकेंगे जिस पर पहुँचना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।

राय साहब ने फिर गिलौरी-दान निकाला और कई गिलौरियाँ निकालकर मुँह में भर लीं। कुछ और कहने वाले थे कि एक चपरासी ने आकर कहा — सरकार बेगारों ने काम करने से इनकार कर दिया है। कहते हैं, जब तक हमें खाने को न मिलेगा हम काम न करेंगे। हमने धमकाया, तो सब काम छोड़कर अलग हो गये।

राय साहब के माथे पर बल पड़ गये। आँखें निकालकर बोले –चलो, मैं इन दुष्टों को ठीक करता हूँ। जब कभी खाने को नहीं दिया, तो आज यह नयी बात क्यों ? एक आने रोज़ के हिसाब से मजूरी मिलेगी, जो हमेशा मिलती रही है; और इस मजूरी पर उन्हें काम करना होगा, सीधे करें या टेढ़े।

फिर होरी की ओर देखकर बोले — तुम अब जाओ होरी, अपनी तैयारी करो। जो बात मैंने कही है, उसका ख़याल रखना। तुम्हारे गाँव से मुझे कम-से-कम पाँच सौ की आशा है।

राय साहब झल्लाते हुए चले गये। होरी ने मन में सोचा, अभी यह कैसी-कैसी नीति और धरम की बातें कर रहे थे और एकाएक इतने गरम हो गये!

सूर्य सिर पर आ गया था। उसके तेज से अभिभूत होकर वृक्षों ने अपना पसार समेट लिया था। आकाश पर मिटयाला गर्द छाया हुआ था और सामने की पृथ्वी काँपती हुई जान पड़ती थी।

होरी ने अपना डंडा उठाया और घर चला। शगून के रुपये कहाँ से आयेंगे, यही चिन्ता उसके सिर पर सवार थी।

होरी अपने गाँव के समीप पहुँचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रही थी, बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दिया हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर बोला — आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गया, कुछ सूझता है कि नहीं?

उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिये। गोबर साँवला, लम्बा, एकहरा युवक था, जिसे इस काम से रुचि न मालूम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असन्तोष और विद्रोह था। वह इसलिये काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने-पीने की कोई फ़िक्र नहीं है। बड़ी लड़की सोना लज्जा-शील कुमारी थी, साँवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी जिसे वह घुटनों से मोड़ कर कमर में बाँधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच-छः साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लँगोटी कमर में बाँधे, बहुत ही ढीठ और रोनी।

रूपा ने होरी की टाँगों में लिपट कर कहा — काका! देखो, मैने एक ढेला भी नहीं छोड़ा। बहन कहती है, जा पेड़ तले बैठ। ढेले न तोड़े जायँगे काका, तो मिट्टी कैसे बराबर होगी।

होरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते हुए कहा — तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल घर चलें। कुछ देर अपने विद्रोह को दबाये रहने के बाद गोबर बोला — यह तुम रोज़-रोज़ मालिकों की ख़ुशामद करने क्यों जाते हो? बाक़ी न चुके तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है, नज़र-नज़राना सब तो हमसे भराया जाता है। फिर किसी की क्यों सलामी करो!

इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थे; लेकिन लड़के के इस विद्रोह-भाव को दबाना ज़रूरी था। बोला — सलामी करने न जायँ, तो रहें कहाँ। भगवान् ने जब ग़ुलाम बना दिया है तो अपना क्या बस है। यह इसी सलामी की बरकत है कि द्वार पर मड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा। घूरे ने द्वार पर खूँटा गाड़ा था, जिस पर कारिन्दों ने दो रुपए डाँड़ ले लिये थे। तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिन्दा ने कुछ नहीं कहा। दूसरा खोदे तो नज़र देनी पड़े। अपने मतलब के लिए सलामी करने जाता हूँ, पाँव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है। घंटों खड़े रहो, तब जाके मालिक को ख़बर होती है। कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि फ़ुरसत नहीं है।

गोबर ने कटाक्ष किया — बड़े आदमियों की हाँ-में-हाँ मिलाने में कुछ-न-कुछ आनन्द तो मिलता ही है। नहीं लोग मेम्बरी के लिए क्यों खड़े हों?

‘जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम होगा बेटा, अभी जो चाहे कह लो। पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता था; पर अब मालूम हुआ कि हमारी गरदन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता।’

पिता पर अपना क्तोध उतारकर गोबर कुछ शान्त हो गया और चुपचाप चलने लगा। सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है तो ईर्ष्या हुई। उसे डाँटकर बोली — अब गोद से उतरकर पाँव-पाँव क्यों नहीं चलती, क्या पाँव टूट गये हैं?

रूपा ने बाप की गरदन में हाथ डालकर ढिठाई से कहा — न उतरेंगे जाओ। काका, बहन हमको रोज़ चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूँ। मेरा नाम कुछ और रख दो।

होरी ने सोना को बनावटी रोष से देखकर कहा — तू इसे क्यों चिढ़ाती है सोनिया? सोना तो देखने को है। निबाह तो रूपा से होता है। रूपा न हो, तो रुपए कहाँ से बनें, बता।

सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया — सोना न हो मोहन कैसे बने, नथुनियाँ कहाँ से आयें, कंठा कैसे बने?

गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया। रूपा से बोला — तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला है, रूपा तो उजला होता है जैसे सूरज।

सोना बोली — शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है, उजली साड़ी कोई नहीं पहनता।

रूपा इस दलील से परास्त हो गयी। गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी। उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा।

होरी को एक नयी युक्ति सूझ गयी। बोला — सोना बड़े आदमियों के लिए है। हम ग़रीबों के लिए तो रूपा ही है। जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूँ को चमार; इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं।

सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था। परास्त होकर बोली — तुम सब जने एक ओर हो गये, नहीं रुपिया को रुलाकर छोड़ती।

रूपा ने उँगली मटकाकर कहा — ए राम, सोना चमार — ए राम, सोना चमार।

इस विजय का उसे इतना आनन्द हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी। ज़मीन पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर यही रट लगाने लगी — रूपा राजा, सोना चमार — रूपा राजा, सोना चमार!

ये लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट होकर बोली — आज इतनी देर क्यों की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है।

फिर पति से गर्म होकर कहा — तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुँच गये। खेत कहीं भागा जाता था!

द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर उँड़ेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गये। जौ की रोटियाँ थीं; पर गेहूँ-जैसी सुफ़ेद और चिकनी। अरहर की दाल थी जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईष्यार्-भरी आँखों से देखा, मानो कह रही थी, वाह रे दुलार!

धनिया ने पूछा — मालिक से क्या बात-चीत हुई?

होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा — यही तहसील-वसूल की बात थी और क्या। हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे; लेकिन सच पूछो, तो वह हमसे भी ज़्यादा दुःखी हैं। हमें अपने पेट ही की चिन्ता है, उन्हें हज़ारों चिन्ताएँ घेरे रहती हैं।

राय साहब ने और क्या-क्या कहा था, वह कुछ होरी को याद न था। उस सारे कथन का ख़ुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था।

गोबर ने व्यंग्य किया — तो फिर अपना इलाक़ा हमें क्यों नहीं दे देते! हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं। करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी। जिसे दुःख होता है, वह दरजनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है। मज़े से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुखी हैं!

होरी ने झुँझलाकर कहा — अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे। हमीं को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफ़री की मजूरी भी तो नहीं पड़ती। जो दस रुपए महीने का भी नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता। खेती छोड़ दें, तो और करें क्या? नौकरी कहीं मिलती है? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है वह नौकरी में तो नहीं है। इसी तरह ज़मींदारों का हाल भी समझ लो! उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ, उनकी सलामी करो, अमलों को ख़ुश करो। तारीख़ पर मालगुज़ारी न चुका दें, तो हवालात हो जाय , कुड़की आ जाय। हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता। दो-चार गलियाँ-घुड़कियाँ ही तो मिलकर रह जाती हैं।

गोबर ने प्रतिवाद किया — यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब भी गुज़र नहीं होता। उन्हें क्या, मज़े से गद्दी-मसनद लगाये बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं, हज़ारों आदमियों पर हुकूमत है। रुपए न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन लेकर आदमी और क्या करता है?

‘तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?’ ‘भगवान् ने तो सबको बराबर ही बनाया है।’

‘यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भजवान के घर से बनकर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किये हैं, उनका आनन्द भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?

‘यह सब मन को समझाने की बातें हैं। भगवान् सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह ग़रीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है।’

‘यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घंटे रोज़ भगवान् का भजन करते हैं।’

‘किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धर्म होता है?’

‘अपने बल पर।’

‘नहीं, किसानों के बल पर और मज़दूरों के बल पर। यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दान-धर्म करना पड़ता है, भगवान् का भजन भी इसीलिए होता है, भूखे-नंगे रहकर भगवान् का भजन करें, तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को दे तो हम आठों पहर भगवान् का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भिक्त भूल जाय।’

होरी ने हार कर कहा — अब तुम्हारे मुँह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान् की लीला में भी टाँग अड़ाते हो।

तीसरे पहर गोबर कुदाल लेकर चला, तो होरी ने कहा — ज़रा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा निकालकर रख दो। मैंने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है।

गोबर ने अवज्ञा-भरी आँखों से देखकर कहा — हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है।

‘बेचता नहीं हूँ भाई, यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।’

‘हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी।’

‘दे तो रहा था; पर हमने ली ही नहीं।’

धनिया मटक्कर बोली — गाय नहीं वह दे रहा था। इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू-भर दूध तो भेजा नहीं, गाय देगा!

होरी ने क़सम खायी — नहीं, जवानी क़सम, अपनी पछाई गाय दे रहे थे। हाथ तंग है, भूसा-चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेचकर भूसा लेना चाहते हैं। मैंने सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँगा। थोड़ा-सा भूसा दिये देता हूँ, कुछ रुपए हाथ आ जायँगे तो गाय ले लूँगा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूँगा। अस्सी रुपए की है; मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे।

गोबर ने आड़े हाथों लिया — तुम्हारा यही धमार्त्मापन तो तुम्हारी दुर्गत कर रहा है। साफ़-साफ़ तो बात है। अस्सी रुपए की गाय है, हमसे बीस रुपए का भूसा ले लें ओर गाय हमें दे दें। साठ रुपए रह जायँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।

होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया — मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाय। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है, बस। दो-चार मन भूसा तो ख़ाली अपना रंग जमाने को देता हूँ।

गोबर ने तिरस्कार किया — तो तुम अब सब की सगाई ठीक करते फिरोगे?

धनिया ने तीखी आँखों से देखा — अब यही एक उद्यम तो रह गया है। नहीं देना है हमें भूसा किसी को। यहाँ भोली-भाली किसी का करज़ नहीं खाया है।

होरी ने अपनी सफ़ाई दी — अगर मेरे जतन से किसी का घर बस जाय, तो इसमें कौन-सी बुराई है?

गोबर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया। उसे यह झमेला बिल्कुल नहीं भाता था।

धनिया ने सिर हिला कर कहा — जो उनका घर बसायेगा, वह अस्सी रुपए की गाय लेकर चुप न होगा। एक थैली गिनवायेगा।

होरी ने पुचारा दिया — यह मैं जानता हूँ; लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो। मुझसे जब मिलता है, तेरा बखान ही करता है — ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीके-दार है।

धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी। मनभाय मुड़िया हिलाये वाले भाव से बोली — मैं उनके बखान की भूखी नहीं हूँ, अपना बखान धरे रहें।

होरी ने स्नेह-भरी मुस्कान के साथ कहा — मैंने तो कह दिया, भैया, वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती, गालियों से बात करती है; लेकिन वह यही कहे जाय कि वह औरत नहीं लक्षमी है। बात यह है कि उसकी घरवाली ज़बान की बड़ी तेज़ थी। बेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा फिरता था। कहता था, जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख लेता हूँ, उस दिन कुछ-न-कुछ ज़रूर हाथ लगता है। मैंने कहा — तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज़ देखते हैं, कभी पैसे से भेंट नहीं होती।

‘तुम्हारे भाग ही खोटे हैं, तो मैं क्या करूँ।’

‘लगा अपनी घरवाली की बुराई करने — भिखारी को भीख तक नहीं देती थी, झाड़ू लेकर मारने दौड़ती थी, लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरों के घर से माँग लाती थी!’

‘मरने पर किसी की क्या बुराई करूँ। मुझे देखकर जल उठती थी।’

‘भोला बड़ा ग़मख़ोर था कि उसके साथ निबाह कर दिया। दूसरा होता तो ज़हर खाके मर जाता। मुझसे दस साल बड़े होंगे भोला; पर राम-राम पहले ही करते हैं।’

‘तो क्या कहते थे कि जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह देख लेता हूँ, तो क्या होता है?’

‘उस दिन भगवान् कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते हैं।’

‘बहुएँ भी तो वैसी ही चटोरिन आयी हैं। अबकी सबों ने दो रुपए के ख़रबूज़े उधार खा डाले। उधार मिल जाय, फिर उन्हें चिन्ता नहीं होती कि देना पड़ेगा या नहीं।’

‘और भोला रोते काहे को हैं?

गोबर आकर बोला — भोला दादा आ पहुँचे। मन दो मन भूसा हैरु वह उन्हें दे दो, फिर उनकी सगाई ढूँढ़ने निकलो।

धनिया ने समझाया — आदमी द्वार पर बैठा है उसके लिए खाट-वाट तो डाल नहीं दी, ऊपर से लगे भुनभुनाने। कुछ तो भलमंसी सीखो। कलसा ले जाओ, पानी भरकर रख दो, हाथ-मुँह धोयें, कुछ रस-पानी पिला दो। मुसीबत में ही आदमी दूसरों के सामने हाथ फैलाता है।

होरी बोला — रस-वस का काम नहीं है, कौन कोई पाहुने हैं।

धनिया बिगड़ी — पाहुने और कैसे होते हैं! रोज़-रोज़ तो तुम्हारे द्वार पर नहीं आते? इतनी दूर से धूप-घाम में आये हैं, प्यास लगी ही होगी। रुपिया, देख डब्बे में तमाखू है कि नहीं, गोबर के मारे काहे को बची होगी। दौड़कर एक पैसे का तमाखू सहुआइन की दुकान से ले ले।

भोला की आज जितनी ख़ातिर हुई, और कभी न हुई होगी। गोबर ने खाट डाल दी, सोना रस घोल लायी, रूपा तमाखू भर लायी। धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान सुनने के लिए अधीर हो रही थी।

भोला ने चिलम हाथ में लेकर कहा — अच्छी घरनी घर में आ जाय, तो समझ लो लक्ष्मी आ गयी। वही जानती है छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए।

धनिया के हृदय में उल्लास का कम्पन हो रहा था। चिन्ता और निराशा और अभाव से आहत आत्मा इन शब्दों में एक कोमल शीतल स्पर्श का अनुभव कर रही थी।

होरी जब भोला का खाँचा उठाकर भूसा लाने अन्दर चला, तो धनिया भी पीछे-पीछे चली। होरी ने कहा — जाने कहाँ से इतना बड़ा खाँचा मिल गया। किसी भड़भूजे से माँग लिया होगा। मन-भर से कम में न भरेगा। दो खाँचे भी दिये, तो दो मन निकल जायँगे।

धनिया फूली हुई थी। मलामत की आँखों से देखती हुई बोली — या तो किसी को नेवता न दो, और दो तो भरपेट खिलाओ। तुम्हारे पास फूल-पत्र लेने थोड़े ही आये हैं कि चँगेरी लेकर चलते। देते ही हो, तो तीन खाँचे दे दो। भला आदमी लड़कों को क्यों नहीं लाया। अकेले कहाँ तक ढोयेगा। जान निकल जायगी।

‘तीन खाँचे तो मेरे दिये न दिये जायँगे !’

‘तब क्या एक खाँचा देकर टालोगे? गोबर से कह दो, अपना खाँचा भरकर उनके साथ चला जाय।’

‘गोबर ऊख गोड़ने जा रहा है।’

‘एक दिन न गोड़ने से ऊख न सूख जायगी।’

‘यह तो उनका काम था कि किसी को अपने साथ ले लेते। भगवान् के दिये दो-दो बेटे हैं।’

‘न होंगे घर पर। दूध लेकर बाज़ार गये होंगे।’

‘यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो। लाद दे, लदा दे, लादनेवाला साथ कर दे।’

‘अच्छा भाई, कोई मत जाय। मैं पहुँचा दूँगी। बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं है।’

‘और तीन खाँचे उन्हें दे दूँ, तो अपने बैल क्या खायेंगे?’

‘यह सब तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था। न हो, तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ।’

‘मुरौवत मुरौवत की तरह की जाती है, अपना घर उठाकर नहीं दे दिया जाता!’

‘अभी ज़मींदार का प्यादा आ जाय, तो अपने सिर पर भूसा लादकर पहुँचाओगे तुम, तुम्हारा लड़का, लड़की सब। और वहाँ साइत मन-दो-मन लकड़ी भी फाड़नी पड़े।’

‘ज़मींदार की बात और है।’

‘हाँ, वह डंडे के ज़ोर से काम लेता है न।’

‘उसके खेत नहीं जोतते?’

‘खेत जोतते हैं, तो लगान नहीं देते?’

‘अच्छा भाई, जान न खा, हम दोनों चले जायँगे। कहाँ-से-कहाँ मैंने इन्हें भूसा देने को कह दिया। या तो चलेगी नहीं, या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।’

तीनों खाँचे भूसे से भर दिये गये। गोबर कुढ़ रहा था। उसे अपने बाप के व्यवहारों में ज़रा भी विश्वास न था। वह समझता था, यह जहाँ जाते हैं, वहीं कुछ-न-कुछ घर से खो आते हैं। धनिया प्रसन्न थी। रहा होरी, वह धर्म और स्वार्थ के बीच में डूब-उतरा रहा था।

होरी और गोबर मिलकर एक खाँचा बाहर लाये। भोला ने तुरन्त अपने अँगोछे का बीड़ा बनाकर सिर पर रखते हुए कहा — मैं इसे रखकर अभी भागा आता हूँ। एक खाँचा और लूँगा।

होरी बोला — एक नहीं, अभी दो और भरे धरे हैं। और तुम्हें आना नहीं पड़ेगा। मैं और गोबर एक-एक खाँचा लेकर तुम्हारे साथ ही चलते हैं।

भोला स्तम्भित हो गया। होरी उसे अपना भाई बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआ, जिसने मानो उसके सम्पूर्ण जीवन को हरा कर दिया।

तीनों भूसा लेकर चले, तो राह में बातें होने लगीं।

भोला ने पूछा — दशहरा आ रहा है, मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी?

‘हाँ, तम्बू सामियाना गड़ गया है। अब की लीला में मैं भी काम करूँगा। राय साहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।’

‘मालिक तुमसे बहुत ख़ुश हैं।’

‘उनकी दया है।’

एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा — सगुन करने के रुपए का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा।

होरी ने मुँह का पसीना पोंछकर कहा — उसी की चिन्ता तो मारे डालती है दादा — अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। ज़मींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातोंरात ढोकर छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता। ज़मींदार तो एक ही हैं; मगर महाजन तीनतीन हैं, सहुआइन अलग, मँगरू अलग और दातादीन पण्डित अलग। किसी का ब्याज भी पूरा न चुका। ज़मींदार के भी आधे रुपए बाक़ी पड़ गये। सहुआइन से फिर रुपए उधार लिये तो काम चला। सब तरह किफ़ायत कर के देख लिया भैया, कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसी लिए हुआ है कि अपना रक्त बहायें और बड़ों का घर भरें। मूलका दुगना सूद भर चुका; पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैं, सर्दी-गर्मी में, तीरथ-बरत में हाथ बाँधकर ख़रच करो। मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता। राय साहब ने बेटे के ब्याह में बीस हज़ार लुटा दिये। उनसे कोई कुछ नहीं कहता। मँगरू ने अपने बाप के िक्तया-करम में पाँच हज़ार लगाये। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। वैसा ही मरजाद तो सबका है।

भोला ने करुण भाव से कहा — बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर सकते हो भाई?

‘आदमी तो हम भी हैं।

‘कौन कहता है कि हम तुम आदमी हैं। हममें आदमियत कहाँ? आदमी वह हैं, जिनके पास धन है, अख़्तियार है, इलम है, हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उसपर एक दूसरे को देख नहीं सकता। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफ़ा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।’

बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखों और भविष्य के सर्वनाश से ज़्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाये, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रखकर पानी पीने के लिए बैठ गये। गोबर ने बनिये से लोटा माँगा और पानी खींचने लगा।

भोला ने सहृदयता से पूछा — अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था।

होरी आद्रर् कंठ से बोला — कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूँ। मेरे जीते जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपनी जवानी धूल में मिला दी, वही मेरे मुद्दई हो गये और झगड़े की जड़ क्या थी? यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछो, घर देखनेवाला भी कोई चाहिए कि नहीं। लेना-देना, धरना उठाना, सँभालना-सहेजना, यह कौन करे। फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़ू-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देख-भाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था? जब से अलगौझा हुआ है, दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है। नहीं सब को दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खायँ चार दफ़े, तो देखूँ। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुर्गती हुई है, वह मैं ही जानता हूँ। बेचारी अपनी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहनकर दिन काटती थी, ख़ुद भूखी सो रही होगी; लेकिन बहुओं के लिए जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपनी देह पर गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दो-दो चार-चार गहने बनवा दिये। सोने के न सही चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गये। मेरे सिर से बला टली।

भोला ने एक लोटा पानी चढ़ाकर कहा — यही हाल घर-घर है भैया! भाइयों की बात ही क्या, यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देखकर मुँह नहीं बन्द कर सकता। तुम जुआ खेलोगे, चरस पीओगे, गाँजे के दम लगाओगे, मगर आये किसके घर से? ख़रचा करना चाहते हो तो कमाओ; मगर कमाई तो किसी से न होगी। ख़रच दिल खोलकर करेंगे। जेठा कामता सौदा लेकर बाज़ार जायगा, तो आधे पैसे ग़ायब। पूछो तो कोई जवाब नहीं। छोटा जंगी है, वह संगत के पीछे मतवाला रहता है। साँझ हुई और ढोल-मजीरा लेकर बैठ गये। संगत को मैं बुरा नहीं कहता। गाना-बजाना ऐब नहीं; लेकिन यह सब काम फ़ुरसत के हैं। यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करो, आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो। जाती है मेरे सिर; सानी-पानी मैं करूँ, गाय-भैंस मैं दुहूँ, दूध लेकर बाज़ार मैं जाऊँ। यह गृहस्थी जी का जंजाल है, सोने की हँसिया, जिसे न उगलते बनता है, न निगलते। लड़की है, झुनिया, वह भी नसीब की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आये थे। कितना अच्छा घर-बर था। उसका आदमी बम्बई में दूध की दूकान करता था। उन दिनों वहाँ हिन्दू-मुसलमानों में दंगा हुआ, तो किसी ने उसके पेट में छूरा भोंक दिया। घर ही चौपट हो गया। वहाँ अब उसका निबाह नहीं। जाकर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूँगा; मगर वह राज़ी ही नहीं होती। और दोनों भावजें हैं कि रात-दिन उसे जलाती रहती हैं। घर में महाभारत मचा रहता है। विपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नहीं।

इन्हीं दुखड़ों में रास्ता कट गया। भोला का पुरवा था तो छोटा; मगर बहुत गुलज़ार। अधिकतर अहीर ही बसते थे। और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी। भोला गाँव का मुखिया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी जिस पर दस-बारह गायें-भैंसें खड़ी सानी खा रही थीं। ओसारे में एक बड़ा-सा तख़्त पड़ा था जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूँटी पर ढोलक लटक रही थी किसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो। दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी। उसकी आँखें लाल थीं और नाक के सिरे पर भी सुख़ीर् थी। मालूम होता था, अभी रोकर उठी है। उसके मांसल, स्वस्थ, सुगठित अंगों में मानो यौवन लहरें मार रहा था। मुँह बड़ा और गोल था, कपोल फूले हुए, आँखें छोटी और भीतर धँसी हुई, माथा पतला; पर वक्ष का उभार और गात का वही गुदगुदापन आँखों को खींचता था। उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर रही थी।

भोला को देखते ही उसने लपककर उनके सिर से खाँचा उतरवाया। भोला ने गोबर और होरी के खाँचे उतरवाये और झुनिया से बोले — पहले एक चिलम भर ला, फिर थोड़ा-सा रस बना ले। पानी न हो तो गगरा ला, मैं खींच दूँ। होरी महतो को पहचानती है न?

फिर होरी से बोला — घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया। पुरानी कहावत है — नाटन खेती बहुरियन घर। नाटे बैल क्या खेती करेंगे और बहुएँ क्या घर सँभालेंगी। जब से इसकी माँ मरी है, जैसे घर की बरकत ही उठ गयी। बहुएँ आटा पाथ लेती हैं। पर गृहस्थी चलाना क्या जानें। हाँ, मुँह चलाना ख़ूब जानती हैं। लौंडे कहीं फड़ पर जमे होंगे। सब-के-सब आलसी हैं, कामचोर। जब तक जीता हूँ, इनके पीछे मरता हूँ। मर जाऊँगा, तो आप सिर पर हाथ धरकर रोयेंगे। लड़की भी वैसी ही है। छोटा-सा अढ़ौना भी करेगी, तो भुन-भुनाकर। मैं तो सह लेता हूँ, ख़सम थोड़े ही सहेगा।

झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलम, दूसरे में लोटे का रस लिये बड़ी फुतीर् से आ पहुँची। फिर रस्सी और कलसा लेकर पानी भरने चली। गोबर ने उसके हाथ से कलसा लेने के लिए हाथ बढ़ाकर झेंपते हुए कहा — तुम रहने दो, मैं भरे लाता हूँ।

झुनिया ने कलसा न दिया। कुएँ के जगत पर जाकर मुस्कराती हुई बोली — तुम हमारे मेहमान हो। कहोगे एक लोटा पानी भी किसी ने न दिया।

‘मेहमान काहे से हो गया। तुम्हारा पड़ोसी ही तो हूँ।’

‘पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न दिखाये, तो मेहमान ही है।’

‘रोज़-रोज़ आने से मरजाद भी तो नहीं रहती।’ झुनिया हँसकर तिरछी नज़रों से देखती हुई बोली — वही मरजाद तो दे रही हूँ। महीने में एक बेर आओगे, ठंडा पानी दूँगी। पन्द्रहवें दिन आओगे, चिलम पाओगे। सातवें दिन आओगे, ख़ाली बैठने को माची दूँगी। रोज़-रोज़ आओगे, कुछ न पाओगे।

‘दरसन तो दोगी?’

‘दरसन के लिए पूजा करनी पड़ेगी।’

यह कहते-कहते जैसे उसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी। उसका मुँह उदास हो गया। वह विधवा है। उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था। वह निश्चिन्त थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह उस द्वार को सदैव बन्द रखती है। कभी-कभी घर के सूनेपन से उकताकर वह द्वार खोलती है; पर किसी को आते देखकर भयभीत होकर दोनों पट भेड़ लेती है।

गोबर ने कलसा भरकर निकाला। सबों ने रस पिया और एक चिलम तमाखू और पीकर लौटे। भोला ने कहा — कल तुम आकर गाय ले जाना गोबर, इस बखत तो सानी खा रही है।

गोबर की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थी और मन-ही-मन वह मुग्ध हुआ जाता था। गाय इतनी सुन्दर और सुडौल है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी।

होरी ने लोभ को रोककर कहा — मँगवा लूँगा, जल्दी क्या है?

‘तुम्हें जल्दी न हो, हमें तो जल्दी है। उसे द्वार पर देखकर तुम्हें वह बात याद रहेगी।’

‘उसकी मुझे बड़ी फ़िकर है दादा!’

‘तो कल गोबर को भेज देना।’

दोनों ने अपने-अपने खाँचे सिर पर रखे और आगे बढ़े। दोनों इतने प्रसन्न थे मानो ब्याह करके लौटे हों। होरी को तो अपनी चिर संचित अभिलाषा के पूरे होने का हर्ष था, और बिना पैसे के। गोबर को इससे भी बहुमूल्य वस्तु मिल गयी थी। उसके मन में अभिलाषा जाग उठी थी।

अवसर पाकर उसने पीछे की तरफ़ देखा। झुनिया द्वार पर खड़ी थी, मन आशा की भाँति अधीर, चंचल।

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